चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर स्तिथ कीर्ति स्तंभ भी अपनी प्रसिद्धता को लेकर पर्यटकों को हमेशा से ही आकर्षित करता रहा है | 22 मीटर की ऊंचाई वाला गगनचुम्भी कीर्ति स्तंभ प्रथम जैन तीर्थंकर , आदिनाथ को समर्पित है और यह सात मंज़िला है | कीर्ति स्तंभ की दीवारों पर सुन्दर नक्काशी के साथ ही इसकी वास्तुकला बेजोड़ है | कीर्ति स्तंभ की वास्तुकला सोलंकी शैली की है। कीर्ति स्तंभ की दीवारों पर जैन तीर्थंकरों के चित्र बड़ी संख्या में है । इसी स्तम्भ में दूसरी मंजिल पर भगवान आदिनाथ की भव्य प्रतिमा है | महल की सबसे ऊपरी मंज़िल से चित्तौड़गढ़ दुर्ग सहित शहर के मनोरम नज़ारे देखने को मिलते है | हालंकि पिछले कुछ वर्षो से कीर्ति स्तंभ में पर्यटकों का प्रवेश वर्जित है |

कीर्ति स्तंभ
कीर्ति स्तम्भ का निर्माण भगेरवाल जैन व्यापारी जीजाजी कथोड़ ने बारहवीं शताब्दी में करवाया था। यह स्मारक जैन सम्प्रदाय के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है | कीर्ति स्तम्भ की चारो दिशाओं में आदिनाथ जी की चार दिगंबर प्रतिमाये है | इतिहास में वर्णन मिलता है की बिजली गिरने के कारण कीर्ति स्तम्भ क्षतिग्रस्त हो गया था और स्तंभ के शीर्ष की छत्री खंडित हो गई थी जिसे चित्तौड़गढ़ के तत्कालीन महाराणा फ़तेह सिंह जी ने दुरुस्त करवाया था |
कीर्ति स्तम्भ क्व पास ही महावीर स्वामी का जैन मंदिर भी है | इतिहासकार बताते है कि इस मंदिर का निर्माण महाराणा कुम्भा के शासनकाल में 1438 में ओसवाल महाजन गुणराज द्वारा करवाया गया था | जैन मंदिर दीवारों पर बेहद ही सुन्दर नक्काशी की गई है | मंदिर के बाहर छोटा सा चबूतरा और गार्डन भी है |
कीर्ति स्तम्भ और विजय स्तम्भ का भ्रम
आमतौर एक जैसी बनवाट के कारण कीर्ति स्तम्भ और विजय स्तम्भ में हमेशा ही भ्रम बना रहता है | कई पर्यटक भ्रम के कारण कीर्ति स्तंभ को ही विजय स्तम्भ समझ बैठते है | प्रो. रामनाथ विश्वासपूर्वक कहते है कि “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि चितौडगढ का कीर्तिस्तम्भ इस प्रकार लोगों में विजय स्तंभ के रूप में जाना जा रहा है. कीर्ति स्तंभ सामान्य सी गतिविधि का सैनिक स्मारक नहीं है.” डॉ. नीलिमा मित्तल लिखती है, “ 15 वी शताब्दी के सांस्कृतिक पुनरुत्थान का प्रतीक कीर्ति स्तंभ भ्रमवश किसी सैनिक उपलब्धि के स्मारक स्वरुप “विजय स्तंभ” के रूप में जाना जाता है. इससे इसके मूल अभिप्राय और अवधारणा को लोग भूल गए है.इसके विजय स्तंभ होने का प्रमाण या उल्लेख कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति या किसी अन्य शिलालेख में नहीं मिलता. “अमर काव्य” इसे कीर्ति मेरु लिखता है.